बहुत बदल गया हूं मैं...
वक्त की चुनौतियों से हर पल लड़ता आया हूं मैं...
मौत से भी लड़ते हुये मैंने देखा था अपनी मां को...
ज़िगर के तुकड़े के जुदा होने का गम भी झेला है मैंने...
हर लम्हा मौत के बीच गुज़ार कर कई रात नहीं सो पाया हूं मैं...
वक्त की अठखेलियों के हाथों हर-दम खेला गया हूं मैं...
जीवन के हर लम्हें में , छला गया हूं मैं...
नहीं कोई शिकवा , न कोई शिकायत है मुझे...
वक्त का दस्तूर है ये , इसलिए अब--- बदल गया हूं मैं...
बेबाक " आज के इस ज़माने में हर कोई इस शब्द के साथ ख़ेलने की हिम्मत नहीं जुटा सकता। बेबाकी के साथ अगर आपने अपने ऑफिस य़ा फिर घर में ज़रा सी भी आवाज़ निकाली तो आपकी खैर नहीं ... बेबाकी के साथ बोलने की हिम्मत बची ही कहां है अब ... बची है क्या ? ? ? नहीं न ! तो फिर बोलने में " सकुचाना काहे का । मेरे ब्लॉग ने विशेषतौर पर आपके अंतर्मन की बेबाकी को ही बाहर निकालने के लिये जन्म लिया है। दिल खोल कर कहिये अपनी बात ... पूरी बेबाकी के साथ ...
6/26/2009
5/08/2009
मौत से गुहार...
ये एक असहाय बेटे की मौत से गुहार है ...
गुहार, कैंसर से जूझती मां को असहनीय पीढ़ा से मुक्ति दिलाने के लिए
मौत हर पल मेरे सामने से गुज़रती है...
एक मेरी मां है, कि हर रोज़,हर पल इससे लड़ती है
मैं जानता हूं , वो भी जानती हैं... कि अब जल्द ही मौत की जीत होने वाली है...
लेकिन ना मैंने हार मानी है और ना मेरी मां ने
मौत... ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच है...दोस्तों...
फिर भी हम मौत से लड़ते हैं... अपने को ख़ोने के डर से........ आखिर क्यों...
अब हर पल ये ही सवाल मेरे मन में रहता है....
क्यों डर के साये में मेरा हर पल गुज़रता है
ऐ मौत तू हर रोज़ मेरे सामने से क्यों गुज़रती है...
और क्यों मेरी मां है, कि हर रोज़ तुझसे लड़ती है
मां का दर्द अब और बर्दाश्त नहीं होता... अब बस भी कर...
क्यों तू इतनी देर लगा रही है...
मेरी मां से रोज़ आके लड़ती है और क्यों हार कर वापस चली जाती है....
क्यों तू ज़िद्द पर अड़ी है... और क्यों तू सच से घबरा रही है
हम सब तैयार हैं...
एक असहाय बेटे की तुझसे ये करुण पुकार है...
एक असहाय बेटे की ये विनती अब स्वीकार कर
तू अब जल्दी से आजा , देर ना कर...
अब तू चुपके से आजा , मेरी मां को अब और न सता...
तू आयेगी तो मेरी मां की पीढ़ा ख़त्म हो जायेगी...
इसके लिए , तेरा मैं ता-उम्र कर्ज़दार रहुंगा... जब तक तू मुझे नहीं ले जायेगी...
ऐ मौत तू चुपके से आजा, जब मेरी मां सो रही हो तू उसे जन्नत ले जा...
अब ज़िद्द ना कर
अब ज़िद्द ना कर
ऐ मौत तू चुपके से आजा, जब मेरी मां सो रही हो तू उसे जन्नत ले जा...
गुहार, कैंसर से जूझती मां को असहनीय पीढ़ा से मुक्ति दिलाने के लिए
मौत हर पल मेरे सामने से गुज़रती है...
एक मेरी मां है, कि हर रोज़,हर पल इससे लड़ती है
मैं जानता हूं , वो भी जानती हैं... कि अब जल्द ही मौत की जीत होने वाली है...
लेकिन ना मैंने हार मानी है और ना मेरी मां ने
मौत... ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच है...दोस्तों...
फिर भी हम मौत से लड़ते हैं... अपने को ख़ोने के डर से........ आखिर क्यों...
अब हर पल ये ही सवाल मेरे मन में रहता है....
क्यों डर के साये में मेरा हर पल गुज़रता है
ऐ मौत तू हर रोज़ मेरे सामने से क्यों गुज़रती है...
और क्यों मेरी मां है, कि हर रोज़ तुझसे लड़ती है
मां का दर्द अब और बर्दाश्त नहीं होता... अब बस भी कर...
क्यों तू इतनी देर लगा रही है...
मेरी मां से रोज़ आके लड़ती है और क्यों हार कर वापस चली जाती है....
क्यों तू ज़िद्द पर अड़ी है... और क्यों तू सच से घबरा रही है
हम सब तैयार हैं...
एक असहाय बेटे की तुझसे ये करुण पुकार है...
एक असहाय बेटे की ये विनती अब स्वीकार कर
तू अब जल्दी से आजा , देर ना कर...
अब तू चुपके से आजा , मेरी मां को अब और न सता...
तू आयेगी तो मेरी मां की पीढ़ा ख़त्म हो जायेगी...
इसके लिए , तेरा मैं ता-उम्र कर्ज़दार रहुंगा... जब तक तू मुझे नहीं ले जायेगी...
ऐ मौत तू चुपके से आजा, जब मेरी मां सो रही हो तू उसे जन्नत ले जा...
अब ज़िद्द ना कर
अब ज़िद्द ना कर
ऐ मौत तू चुपके से आजा, जब मेरी मां सो रही हो तू उसे जन्नत ले जा...
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