कैसे भूल जाऊं तुम्हें...
कि हां मैं तुम्हारा शुक्रगुज़ार
हूं
और
कैसे भूल जाऊं कि मैं ही तुम्हारा
गुनहगार हूं...!!!
तुम्हारी खुशी को ख़ामोशी
में बदलने का...
अनजाने ही सही लेकिन
तुम्हारे दिल के अरमानों को
तोड़ने का
और उससे भी कहीं ज़्यादा,
तुम्हारे भरोसे को ठेस
पहुंचाने का...
कैसे भूल जाऊं तुम्हें...कि
हां सच में तुम्हारा
गुनहगार हूं...!!!
हां मैं मानता हूं कि मैंने
तुम्हारा दिल दुखाया...
लेकिन शायद तुम्हें ये आभास
भी नहीं...
कि उसके बाद एक पल सुकून से
मैं भी तो नहीं जी पाया...
बरसों बाद तुम्हीं थीं
वो
जिसने मन में एक आस पैदा की...
जीने की ... उड़ने की और
ख्बाव बुनने की ...
कैसे भूल जाऊं तुम्हें...
कि हां मैं तुम्हारा शुक्रगुज़ार
हूं...!!!
कैसे ज़हन से निकाल दूं...
ज़िंदगी के वो ख़ूबसूरत “दो दिन”
जब तुमने आंख मूंदकर
मुझ पर भरोसा कर मुझमें...
ज़िंदगी जीने की मन में
हसरत पैदा कर दी
दिल की हर बात कहने की इक
आज़ादी दी
कैसे भूल जाऊं मैं...कि
हां मैं तुम्हारा
शुक्रगुज़ार हूं...!!!
बात किसी और की होती तो
शायद
मैं इतना न तड़पता...
तुमने बुझे हुए दीपक को फिर
से इक रौशनी दी...
कैसे मैं फिर से बुझकर
तुम्हारे चेहरे की उदासी का
कारण बन जाऊं...
बताओ
कैसे मैं तुमसे, तुम्हें
जुदा कर जाऊं...
बताओ
कैसे मैं बरसों बाद तुम्हारे
चेहरे पर आई
खिलखिलाहट को भूल जाऊं...
बताओ
कैसे मैं तुम्हारे विश्वास
को वापस लाऊं...
तुम्हीं बताओ
मैं कैसे अनजाने में हुए
अपने उस गुनाह से
तुमको मुक्त कर पाऊं...
कैसे भूल जाऊं तुम्हें...
कि हां मैं ही तुम्हारा
गुनहगार हूं...!!!
क्योंकि
कैसे भूल जाऊं तुम्हें
कि हां मैं तुम्हारा दिल से शुक्रगुज़ार
हूं...!!!