5/10/2013


      "मनप्रिय"  
   जो 'मन को हो प्रिय' उसे कह दो होकर अभय
   न कहना फिर खुद-से कि निकल गया समय

वक्त न कभी किसी का था, ना कोई हो सका वक्त का
       कहीं कोई जो हो गर 'मन को प्रिय'
    वक्त गुज़रने से पहले तुम बोल देना ह्रदय...!!!

    मन में रखने से अच्छा है खोल देना ह्रदय
       तुम न घुटना मन ही मन फिर
      न फिर करना कोई शिकवा ए-ह्रदय...!!!

   उड़ चलेगा बादल-हवा के झोंकों से हिलकर
   फिर गगन होगा नीला जो होता है अक्सर
   सावन के पतझड़ बनकर रहना से अच्छा है
           बसंत ऋतु बनना
   नई उमंगे-नये मौसम में खुद को तुम रंगों से भर लेना

       बस ऐसे ही हो जाना तुम अभय...
        उस 'मनप्रिय' के लिए भी  
  जो 'मन को हो प्रिय' उसे कह दो होकर अभय...!!!

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